समीक्षा: गुनाहों का देवता लेखक धर्मवीर भारती

समीक्षा: गुनाहों का देवता लेखक धर्मवीर भारती

किताब का शीर्षक: गुनाहों का देवता

लेखक: धर्मवीर भारती

मूल्य : १ ६ ०

प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ

मूल्यांकन: ४. ९ /५

संक्षेप में: धर्मवीर भारती के इस उपन्यास का प्रकाशन और इसके प्रति पाठकों का अटूट सम्मोहन हिन्दी साहित्य-जगत् की एक बड़ी उपलब्धि बन गये हैं। दरअसल, यह उपन्यास हमारे समय में भारतीय भाषाओं की सबसे अधिक बिकने वाली लोकप्रिय साहित्यिक पुस्तकों में पहली पंक्ति में है। गुनाहो का देवता मध्यम वर्गीय भारतीय समाज के एक साधारण परिवार की कहानी है।कहानी तीन मुख्या किरदारों के इर्द गिर्द ही घूमती हैं। यह है सुधा, चन्दर और पम्मी. प्रेम, समर्पण और समाज के बंधनो की कहानी है गुनाहो का देवता. साधारण भाषा में लिखी गयी यह पुस्तक समाज का दर्पण दिखती है. लेखक ने इतने सरल दृष्टान्त बनाये हैं की किरदारों से एक जुड़ाव सा महसूस होने लगता है।

समीक्षा : यह किताब मुझे एक पुस्तक प्रेमी द्वारा सुझाई गयी थी। उसे यह सुनके पहले तो बड़ा आश्चर्य हुआ की मैंने न तो इस पुस्तक के बारे में सुना था और न पढ़ा था। उसका कहना था की मेरे जैसे पुस्तक प्रेमी को ऐसी किताब जरूर पढ़नी चाहिए।

लगभग उसी समय सौभाग्यवश मेरी एक दोस्त दिल्ली पुस्तक मेला में गयी थी। मैंने यह किताब खरीदने को कहा तो उसने पहले तो नाक मुँह बनाया। आप क्या करोगे यह पढ़ के? अंग्रेजी की कोई किताब मंगवा लो। कौन ढूंढेगा इसको? मिलेगी भी या नहीं? फिर मेरे द्वारा आश्वस्त होकर की कुछ मिले न मिले यह किताब जरूर मिलेगी, वह थोड़ा प्रयत्न करके इसको खरीद लायी। लेकिन फिर भी आज करीब दो महीने बाद जाके मुझे इसकी समीक्षा का अवसर मिला। मेरे हाथ में यह किताब देख कर लोगो ने काफी मजाक उड़ाया।

हालाँकि आलोचना का मुझ पर न कभी कोई प्रभाव पढ़ा है और न पड़ेगा। भारत वर्ष में अधिकांश लोगो की अंग्रेजी सिर्फ दो मिनट की होती है, उसके बाद वे वापिस हिंदी पे आ जाते है। अब ऐसे लोगो की आलोचना का बुरा क्या मानना भला?

कहानी काफी साधारण हैं। चन्दर एक गरीब परिवार से हैं और डॉ. शुक्ला उसे अपना लेते हैं। शुक्ला जी की लड़की हैं सुधा। चन्दर का शुक्ला जी के घर बे रोक टोक आना जाना रहता हैं। सुधा और उसके बीच काफी हसी ढिंढोली चलती रहती हैं। चन्दर अपनी रिसर्च मैं व्यस्त रहता हैं और बीच बीच मै डॉ. शुक्ला के संग उनके कार्यक्रम मैं जाता हैं। शुक्ला जी ने चन्दर का करियर बनाने का जिम्मा अपने सिर पर ले लिया था और उसका मार्ग दरशन करते रहते थे।

किताब काफी मजेदार है और लेखक व्यंग्य करने का कोई मौका नहीं छोड़ता।

“कोई प्रेमी हैं, या कोई फिलोसोफर हैं, देखा ठाकुर?”

“नहीं यार, दोनों से निकृष्ट कोटि के जीव हैं – ये कवि हैं. में इन्हें जानता हूँ. ये रविंद्र बिसरिया हैं. ऍम ए में पढता हैं. आओ मिलाये तुम्हे!”

बिनती के ससुर का वर्णन देखिये:

“और उसने अंदर जाकर बिनती के ससुर के दिव्य दर्शन प्राप्त किये। वे एक पलंग पर बैठे थे, लेकिन वह अभागा पलंग उनके उदर के लिए नाकाफी था। वे चित्त पड़े थे और साँस लेते थे तो पुराणों की उस कथा का प्रदर्शन हो जाता था की धीरे धीरे पृथ्वी का गोला वाराह के मुँह पर कैसे ऊपर उठा होगा। सिर पर छोटे -छोटे बाल और कमर में एक अंगोछे के अलावा सारा शरीर दिगंबर। सुबह शायद गंगा नहाकर आये थे क्योंकि पेट तक में चन्दन, रोली लगी हुई थी।

सुधा शादी से हमेशा इंकार करती है क्यूंकि उसे चन्दर से प्यार हैं लेकिन चन्दर जिस आदमी के आश्रय तले पढ़ा, उसको कैसे धोखा देता? शायद इसी वजह से वह सुधा को नहीं अपना पाया। जब डॉ. शुक्ला द्वारा सुधा की शादी तय की गयी तो चन्दर को ही सुधा से हाँ कहलाने की जिम्मेदारी मिली।

हाय री विडम्बना!

जो सुधा चन्दर को मन ही मन इतना चाहता था, वही किसी दुसरे से उसका रिश्ता तय करवाने चला।

सुधा की शादी संपन्न हो जाती है लेकिन सुख कभी नहीं आता।

सभी अच्छी कहानियो का अंत प्रायः दुखद ही होता है और जब कहानी प्रेम पे आधारित हो तो दुखद अंत तो और आवश्यक हो जाता है। गुनाहो का देवता मै भी कुछ ऐसा ही हैं। अब जिंदगी मै कभी कभार ही प्रेम प्रसंग अपने मुकाम मै पहुंच पाते हैं, ज्यादातर विफल हो जाते हैं और विफलता के प्रसंग ही पढ़ने लायक, बांटने लायक होते है। जब सब कुछ अच्छा हो जाये तो फिर पढ़ने मैं काहे का आनंद? शायद इसी दुविधावश लेखक को इस कहानी को दुखद अंत देना पढ़ा।

भले ही कहानी मैं उन सब बातो का जिक्र है जो साधारणतया हम हिंदी साहित्य मैं पाते नहीं, लेकिन उस समय के समाज का आयना हैं गुनाहो का देवता।

सभी किरदार आम इंसान जैसे हैं, सभी मैं कमियां हैं। डॉ. शुक्ला वैसे तो किसी के यहाँ भी खाना खा लेते है लेकिन घर पे चकला चुहला और आडम्बरो का पालन करते रहते हैं। सुधा का किरदार बिलकुल एक भोली भाली लड़की का हैं जिसके सामने अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं।

कहानी का अंत मन को काफी झुंझला देता हैं। हम पढ़ना चाहते हैं उन रचनाओं को जिनका अंत आशा के विपरीत हो, चाहते हैं की लेखक हमे चकित करें लेकिन मन में फिर भी कहीं एक आशा की आशा की किरण होती हैं की शायद अंत अच्छा हो। खैर, अंत कैसा भी क्यों न हो, सबको पसंद आ नहीं सकता लेकिन इस कहानी का अंत कुछ ज्यादा ही दुखद हैं।

मुझसे किसी ने कहा था की एक महान लेखक की पहचान उसके द्वारा जीते गए पुरस्कारों से नहीं होती, यदि उसकी किताबे हर एक रेलवे स्टेशन पे मिले तो समझो की उसने पाठको का मन जीत लिया हैं। अभी तक तो मुझे ऐसा कोई स्टेशन नहीं मिला, जहां मैंने यह किताब न देखी हो।

किताब का कवर बेकार सा हैं। इसी कारणवश एक अंक काम दिया गया हैं। इतना एब्स्ट्रैक्ट कवर बनाने की क्या जरूरत थी, मेरी समझ से परे हैं।

 

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